ISRO: इलेक्ट्रिक थ्रस्टर की परीक्षण के बारे में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष एस सोमनाथ ने जानकारी दी. उन्होंने आकाशवाणी पर सरदार पटेल पर व्याख्यान देते हुए इसका खुलासा किया. एस सोमनाथ ने कहा कि अंतरिक्ष की उड़ान भरने के लिए स्वदेशी रूप से विकसित ‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ का इस्तेमाल करने वाला पहला ‘टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर सैटेलाइट’ (टीडीएस-01) दिसंबर में प्रक्षेपित किया जाएगा.
क्या है इलेक्ट्रिक थ्रस्टर की खासियत
यह एक ऐसी तकनीक है, जो अंतरिक्ष यान को हल्का और अधिक सक्षम बनाने का भरोसा जगाती है. ‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ का मतलब बिजली से संचालित अंतरिक्ष यान प्रणोदन उपकरण से है. ‘टीडीएस-01’ स्वदेशी रूप से निर्मित ट्रैवलिंग-वेव ट्यूब एम्पलीफायर (TWTA) की क्षमता का भी प्रदर्शन करेगा, जो उपग्रहों में लगाए जाने वाले विभिन्न संचार उपकरणों और ‘माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग पेलोड’ का अहम हिस्सा है. चार टन के संचार उपग्रह को प्रणोदक को सक्रिय करने और उसे प्रक्षेपण कक्षा से वांछित भूस्थिर कक्षा में पहुंचाने के लिए दो टन से अधिक तरल ईंधन की जरूरत पड़ती है. अगर उपग्रह वायुमंडलीय खिंचाव या सूर्य और चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण के कारण भटक जाता है, तो उसे वांछित कक्षा में भेजने के लिए भी प्रणोदक को सक्रिय किया जाता है.
चार टन का उपग्रह दो से ढाई टन ईंधन के साथ अंतरिक्ष की उड़ान भर सकता है
इसरो प्रमुख सोमनाथ ने कहा, चार टन का उपग्रह दो से ढाई टन ईंधन के साथ अंतरिक्ष की उड़ान भरता है. ‘इलेक्ट्रिक थ्रस्टर’ के मामले में ईंधन की आवश्यकता घटकर महज 200 किलोग्राम रह जाती है. उन्होंने बताया कि विद्युत प्रणोदन प्रणाली (ईपीएस) ईंधन के रूप में रसायनों के बजाय आर्गन जैसी प्रणोदक गैस का इस्तेमाल करती है, जिसे सौर ऊर्जा की मदद से आयनित किया जाता है. जब ईंधन टैंक का आकार घट जाता है, तब उपग्रह के हर हिस्से का आकार भी कम हो जाता है. यह एक संचयी प्रभाव है. इस उपग्रह का वजन दो टन से अधिक नहीं होगा, लेकिन इसमें चार टन के उपग्रह जितनी ताकत होगी.
रसायन आधारित प्रणोदन प्रणाली के मुकाबले बहुत कम थ्रस्ट उत्पन्न करता है
ईपीएस का एक दूसरा पहलू भी है कि यह रसायन आधारित प्रणोदन प्रणाली के मुकाबले बहुत कम ‘थ्रस्ट’ (बल) उत्पन्न करता है, जिससे उपग्रह को उसकी वांछित कक्षा में पहुंचने में ज्यादा समय लगता है. सोमनाथ ने कहा, विद्युत प्रणोदन प्रणाली की एकमात्र समस्या यह है कि इसमें बहुत कम बल उत्पन्न होता है. इसका इस्तेमाल करने वाले उपग्रह को प्रक्षेपण कक्षा से भूस्थिर कक्षा में पहुंचने में लगभग तीन महीने लगेंगे, जबकि रसायन आधारित प्रणोदम प्रणाली में यह अवधि महज एक सप्ताह है.
2017 में हो चुका है ईपीएस का इस्तेमाल
इसरो ने मई 2017 में प्रक्षेपित ‘जीसैट-9’ उपग्रह में पहली बार ईपीएस का इस्तेमाल किया था. हालांकि, यह ईपीएस पूरी तरह से रूस में तैयार किया गया था.
ISRO to Test Indigenously Developed Electric Thruster in December: Here’s What Makes it Unique
ISRO has taken yet another significant step toward making history in space exploration. In December, India will test an indigenously developed electric thruster.
The Chairman of the Indian Space Research Organisation (ISRO), S. Somanath, provided details about the electric thruster test, revealing the information during a lecture on Sardar Patel broadcast by Akashvani. Somanath announced that the first "Technology Demonstrator Satellite" (TDS-01), which will use the indigenously developed electric thruster, is set to launch in December.
What Makes the Electric Thruster Special?
The electric thruster is a technology designed to make spacecraft lighter and more efficient. This thruster operates on electricity, propelling the spacecraft without traditional fuel. TDS-01 will also demonstrate the capabilities of an indigenously developed Traveling-Wave Tube Amplifier (TWTA), a key component in satellite communication systems and microwave remote sensing payloads. Generally, a four-ton communication satellite requires more than two tons of liquid fuel to activate its propulsion and shift from its launch orbit to the desired geostationary orbit. This propulsion is also needed to reposition the satellite if it drifts due to atmospheric drag or the gravitational pull of the Sun and Moon.
A Four-Ton Satellite Can Now Fly with Only 200 Kilograms of Fuel
According to Somanath, a four-ton satellite typically uses around two to two-and-a-half tons of fuel to reach orbit. However, with the electric thruster, fuel requirements drop to only about 200 kilograms. The electric propulsion system (EPS) utilizes argon or similar gases as propellants, ionizing them with solar power instead of relying on chemical fuels. This reduction in fuel tank size allows for a decrease in the overall size of satellite components. Although this satellite will weigh no more than two tons, it will have the power of a four-ton satellite.
EPS Generates Much Less Thrust Compared to Chemical Propulsion SystemsOne drawback of EPS is that it generates much less thrust compared to chemical propulsion, meaning that satellites take longer to reach their desired orbit. Somanath explained that with EPS, the satellite would take approximately three months to reach a geostationary orbit from the launch orbit, compared to just one week with a chemical propulsion system.
EPS Was Previously Used in 2017
ISRO first used EPS in the GSAT-9 satellite, launched in May 2017. However, the EPS for that satellite was entirely developed in Russia.
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